सीखड़: संस्कृति, समृद्धि और सामुदायिक शक्ति

सीखड़: जहाँ इतिहास साँस लेता है और भविष्य आकार लेता है।

बफ्फतनामा :-

सीखड़ के कबीर : शेख बफ्फत

श्रीखंड (सीखड़) की धरती इतनी उर्वर रही है कि इसने कई अमर सपूतों को जन्म दिया । जिन्हें कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकता । प्रत्येक व्यक्तित्व की एक पृथक पहचान है । गाँव की उन तमाम हस्तियों में से जो एक नाम विशिष्ट रुप से उभर कर सामने आता है – वह है शेख बफ्फत शायर का ।
बफ्फत शायर के परिचय में कुछ भी कहना अथवा लिखना सूरज को दीपक दिखाने के सदृश्य है । इनका व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व स्वयंमेव प्रकाशमान है । जिनसे गाँव, क्षेत्र, जनपद, प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरा देश और कुछ दूसरे देश भी भलीभाँति परिचित हैं । त्रिनिडाड, मॉरीशस, गुवना प्रभृति देशों में भी जहाँ हिंदी और भोजपुरी भाषी गिरमिटिया मजदूरों के द्वारा इनके लिखे गये भजन, निर्गुन व कजलियों को बड़ी तन्मयता से गाया और सुना जाता रहा था । जहाँ हिन्दी और भोजपुरी भाषी गिरमिटिया मजदूरों की पीढ़ियाँ आज भी आबाद हैं । वहाँ श्रुतियों में कई प्रसंग आज भी जिंदा हैं । आश्चर्य होता है कि आज की भाँति तत्समय इतने व्यापक संचार माध्यम भी नहीं हुआ करते थे । फिर भी इतने व्यापक क्षेत्रों और व्यक्तियों में पैठ अथवा स्थान बना पाना आश्चर्य से भर देता है। यदि उस समय आज की भाँति संचार माध्यम होते तो सहज ही समझा जा सकता है कि वे विश्वपटल पर छा गये होते।
सच कहा जाए तो मैं इन विराट व्यक्तित्व के संदर्भ में कुछेक वाक्य भी लिखने में समर्थ नहीं हूँ । यह आलेख तो उनकी पावन – स्मृति में एक श्रद्धाँजलि (श्रद्धा- प्रसून) मात्र है । जिसके माध्यम से मैंने अपना परिचय देने की धृष्टता की है ।
इनका जन्म 19 वीं शताब्दी के मध्य- काल में माना जाता है । इनकी सृजन-प्रतिभा किशोरावस्था में ही जागृत हो चुकी थीं। इन्होंने स्कूल का मुँह तक नहीं देखा था। और न ही दूधिया पटिया ही कभी पकड़ा था । अक्षर ज्ञान से इनका दूर-दूर तक रिश्ता नहीं था। फिर भी इनके मुँह से निकले शब्द काव्य में ढ़लते चले गए और कविता, कजली, सोहर, गीत, निर्गुण इन्होंने कई विधाओं में रचना की है । किंतु इन्होंने मिर्जापुरी शाइरी कजरी की एक अलग शैली पैदा किया। इन्होंने अपनी स्थानीय – भाषा शैली में लिखना आरम्भ किया और जीवन पर्यंत इसी शैली में लिखते रहे ।
बताया जाता है कि बचपन में आप कौडी (एक प्रकार का मौद्रिक-जुआ) खेलने की लत से बुरी तरह ग्रस्त थे । इनकी शादी किशोरावस्था में ही कर दी गई थी । इनकी बीबी का नाम जुमरातन था। किन्हीं बातों से दु:खी होकर आप कलकत्ता चले गए । जहाँ जुआ खेलते हुए अंग्रेजी पुलिस के हाथ लग गए ।अंग्रेजी पुलिस ने आप को अंदमान निकोबार द्वीपसमूह ( काला पानी) भेज दिया।
उक्त किंवदंती के सापेक्ष मेरे मन मस्तिष्क में एक बात मथती रही है की इतने कम अपराध में भी इतनी बड़ी सजा सुनाया जाना कुछ अटपटा सा लगता है। जैसा की अंडमान निकोबार दीप समूह की जेल की जो संरचना एकदम अलग तरह की है । बेहद जटिल और अंधकार युक्त है।जहाँ एक दूसरे कैदी से व्यवहारिक रूप से मिल पाना सहज नहीं होता।ऐसे में मैं समझता हूँ कि उन्हें किसी अन्य स्थान पर भेजा गया रहा होगा । जहाँ पर स्वतंत्र रूप से लोगबाग रहा करते होंगे।
बहरहाल…..
जहाँ इनको ठहराया गया था। वहीं पड़ोस में एक ठाकुर साहब की रहाइश थी । वे प्रायः अपनी धुन में कजरी, भजन कौव्वाली गाते गुनगुनाते रहते थे। जिसे आस पड़ोस के लोग बाग सहज सुनते थे । आते जाते कजली प्रेमी जन प्यार से बैठा लेते । बातों ही बातों में गायन का दौर चल पड़ता। इससे आप वहाँ थोड़े ही दिनों में जाने पहचाने जाने लगे। पड़ोस के ठाकुर एवं ठकुराइन इनकी शाइरी एवं कजली से बेहद प्रभावित थे । इसी कारण उनके यहाँ इनका प्रायः आना जाना होता रहता था । वे इन्हें बहुत सम्मान देती थीं । उनकी इसी भावना को देख पड़ोसियों में तरह तरह की बातें गरम होने लगींं । सबके दिलोदिमाग में बवंडर मच गया । अफवाहों का परिणाम यह हुआ कि ठाकुर साहब ने अपनी पत्नी का परित्याग कर दिया । ऐसी स्थिति में ठकुराइन साहिबा ने कहा ‘जब झूठ में ही हम बदनाम हो गए तो क्यों न हम एक हो जाएं ‘ सो इन्हें वे सचमुच में वरण कर लिया । इनके अच्छे कार्य – व्यवहार के चलते इनकी शेष सजा माफ करके अपने गाँव भेज दिया गया। साथ में ठकुराइन साहिबा भी सीखड़ आ गईं । यहाँ इनके बच्चों के नाती पोते आज भी आबाद हैं।

इनकी मृत्यु लगभग अस्सी साल की अवस्था में 25 अप्रैल सन् 1936 में हुई । यह तारीख उनके कब्र में लगे एक पत्थर पर बाकायदा उत्कीर्ण है । इन्हीं के सटे सटाये इनकी बीबी का भी कब्र अवस्थित है।

बफ्फत शायर का रचना – संसार पर एक दृष्टि :-

जैसा कि मैंने प्रारंभ में भी बताया है कि वे स्कूली शिक्षा से नितांत अपरिचित थे । यूं कहा जाए कि वे न कभी खड़िया पेंसिल को स्पर्श किए थे और न ही किसी अक्षर को पहचाते थे । ध्यातव्य है कि उनकी समस्त रचनाओं को ठकुराइन साहिबा ही लिपिबद्ध किया करती थीं । उनकी रचनात्मक प्रतिभा का विस्तृत क्षेत्र रहा था। इन्होंने लगभग हर विषयों, विधाओं में शायरी किया है । आपकी रामायण, महाभारत और कुरआन के कथा – पात्रों पर दिव्य-वाग्दृष्टि काफी पैनी नज़र आती है । निरगुण जैसे विषय पर तो उनकी पकड़ थी वह श्लाघनीय है, कुछेक पंक्तियाँ अवलोक्य हैं –
“सुमिरन करो तू उनका
जिनका रचा जहान है
अगर जो तुझ में ग्यान है ना …..”

या

” गली गली घूम घूम कर
होती क्यों परेशान सखी
घर बइठे बैकुंठ मिले जब
साबित रहे इमान सखी…..”

जहाँ श्रृंगार और सौंदर्य की अनुभूति उनकी सावनी कजलियों में प्रचुरमात्रा में मिलती है वहीं उनकी निरगुण की रचनाओं में परमात्मा से चिर-मिलन की तृषित अभिलाषाएँ प्रचुर मात्रा में अभिव्यक्त एवं परिलक्षित है ।
उनकी रचनाओं की कुछ पंक्तियाँ अनलोकनीय हैं ।
यथा :-
– ‘हाय रे शरीर, काहे बनी है अमीर
एक दिन गंगा तीर तोहें जाना है ‘

– ‘इ माटी क घड़िलवा बनल अजबै बा
सुबह भरीं त शाम जाय खलियाय बा रे बलमू
शाम भरीं त सुबह जाय खलियाय बा रे बलमू’

एक उनकी कालजयी रचना की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं –
‘ बइठ घाट पर बुढ़िया देत दुहइया बा रे बलमू
आज हमारी डूबी उबारो नइया बा रे बलमू

बारह बरिस क डूबी बरतिया
निकली धन उसकी कुदरतिया
चमकत दुलहिन क सुरतिया
उक्त पंक्तियों का सारांश यह कि एक औरत गर्भस्थ थी कि उसके पति की मृत्यु हो गई। उसने ईश्वरीय न्याय मानकर अपने बच्चे का यथासंभव परवरिश कर पालन पोषण कर बड़ा किया । बच्चे की शादी के लिए वारात सज कर गई। हँसीखुशी शादी सम्पन्न हुई। बहु की विदाई करा कर लौटते समय बारात नदी पार करते समय नदी में डूब गई। वह औरत जो अब बूढ़़ी हो चुकी थी। घाट पर आकर ईश्वर को धिक्कारने लगती है। कि अपने ऊपर बीते को मैंने तुम्हारा न्याय मान बच्चे के लिए जिती रही। उसे भी तुमने मुझसे छीन लिया। जब तक तुम हमारे बेटे बहू और बारात लौटाओगे नहीं मैं यहाँ से नहीं जाऊँगी। अंततः बारह वर्षों बाद ईश्वर को विवश हो बारातियों को ज्यों का त्यों लौटाना ही पड़ा।
शेख बफ्फत शायर को शाइरी कजली का जनक माना जाता है । इनकी कजलियों का असर इतना ब्यापक था कि उसे सुनने के लिए लोग बाग दूर दूर से आते थे । बताया जाता है कि वह एक समय था कि गाँव के प्राय: घरों में स्रोता- मेहमानों का जमावडा इतना हो जाता था कि सोने बैठने के लिए खटिया नहीं मिल पाती थी । तमाम लोगों के यहाँ तो मेहमानों के खाने पीने के लिए हन्डे अथवा बड़े बड़े डेग चढ़ते थे । यह वह जमाना था जब गाँव – पुर के लोगों में मैत्री की भावनाएँ इस कदर थीं कि जब किसी के घर शादी ब्याह की तिथि निश्चित हो जाती थी तो अपने लोगों में चर्चा कर दिया जाता था । ताकि आसानी से बर्तन भांड खटिया बिछौने की व्यवस्था हो सके, पूर्व सूचित कर देते थे ताकि उसी तिथि पर कोई अन्य जन अपने घर भी शादी ब्याह इत्यादि कार्यक्रम न रख दें । तब टेंट हाउस नहीं हुआ करते थे । सामुहिकता की वह स्वर्णिम स्मृतियाँ तो अब धुँधली स्मृतियों के कैनवास से भी लुप्तप्राय प्रतीत होतीं जान पड़तीं । इस तरह की भावनाएँ और छवियाँ फिलहाल इस समय तो देखने को नहीं मिलतीं ।
उनकी पावन स्मृतियों में कजली का वार्षिक कार्यक्रम का आयोजन हमारे गाँव में आज भी होता है । यह भादों माह के वामन द्वादशी के दिन अपरान्ह कुश्ती दंगल के रूप में आरम्भ होता है । सांय काल कजली गायन का आरम्भ होकर दूसरे दिन शाम को समापन होता है । यह परंपरा प्रारंभ से ही चली आ रही है । कभी एक समय था जब कजली गायकों का तांता लगता था कि उनके सम्मान में एक कजली – पुष्प चढ़ा सकूँ। गा सकूँ। कजली प्रेमी स्रोताओं की इतनी भारी भीड़ लगती थी कि कार्यक्रम – स्थल छोटा पड़ जाता था । कभी-कभी तो कजली श्रोताओं की दीवानगी की परीक्षा इस रूप में भी होती थी कि कार्यक्रम के दौरान ही बारिश होने लगती तो भी लोग बाग भींग कर भी अपने स्थान नहीं छोड़ते थे। यह थी उनकी कजली की कशिश।
किंतु विगत कुछ वर्षों से पहले जैसी दीवानगी में कमी देखने को मिलने लगी है। सहज रूप से अनुमान लगाया जाए तो यह आज के तमाम संचार उपक्रमों की उपस्थिति ऐसे कार्यक्रमों को निगलने में सुरसा मानी जा सकती है …..।

बफ्फत शायर के नाती पोते :-

यूं तो उनके नाती पोतों में कई ऐसे प्रतिभा संपन्न रहे हैं जो इनकी कजलियों के गायन में अपना परचम लहराया है। ऐसे में कुछ नामों का उल्लेख करना जरूरी हो जाता है। जहाँ मुस्तफा और इनके पुत्र छेदी व अमीन, मजहर कजली गायन में ख्यात हैं तो वहीं मरहूम मुर्तुज़ा व चाँद कजली लिख कर ख्याति अर्जित की।

यूँ तो इनके नाती पोते बड़ी संख्या में हैं। कुछ तो अपनी जन्मभूमि पर ही हैं । कुछ बनारस के अलग-अलग गाँवों में बस गए हैं। सरसरी तौर पर देखा जाए तो उनके साहित्यिक विरासत को संभालने की किसी के अंदर न लगाव है। न ही समर्पण। कुछ एक लोगों को इनकी थोड़ी बहुत रचनाएँ कजलियाँ याद तो हैं । किंतु कहते हैं लिखित रूप में कोई डायरी अथवा कापी लगभग नहीं के बराबर है। कभी कभार किसी कार्यक्रम के मौकों पर गाते तो हैं। किंतु मेरे यह कहने पर कि इसे बैठ करके लिख । लिखवा करके। एक दस्तावेज के रूप में इसे संरक्षित। सुरक्षित कर लिया जाय ‘ की दिशा में तो उनके जवाब मिलते हैं कि किसके पास इतना समय है?
मैंने इनके मरहूम मूर्तुजा और मरहूम मुस्तफा से कईयों बार निवेदन किया । समय दिया की आप बोलिए में लिख देता हूँ। किंतु वे समयाभाव का हवाला दे करके हमें लौटा दिया है। उनकी यह उदासीनता मुझे अंदर से झकजोर कर रख देती रही है । निश्चित रूप से उनके सामने जो वर्तमान समय है । वे जीवकोपार्जन के लिए जद्दोज़हद कर रहे हैं।

ओम प्रकाश अमित

सीखड़